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17 अक्तूबर 1923/ जन्म-दिवस -मर्मस्पर्शी लेखन की धनी गौरा पंत ‘शिवानी’

Bharat Samvad:
विविध Oct 17, 2024

बहुत से लेखकों की रचनाओं को पढ़ते समय अपने मन-मस्तिष्क पर जोर देना पड़ता है; परन्तु ‘शिवानी’ के नाम से प्रसिद्ध गौरा पंत का लेखन सहज और स्वाभाविक रूप से पाठकों के हृदय में उतरता चला जाता था। पाठक को लगता था कि वह अपने मन की बात अपनी ही भाषा में पढ़ रहा है।

शिवानी का परिवार वैसे  तो मूलतः अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का निवासी था; परन्तु उनके पिता श्री अश्विनी कुमार पाण्डे राजकोट (गुजरात) के प्रसिद्ध ‘प्रिंसेज काॅलिज’ के प्रधानाचार्य थे। वे अंग्रेजी के सिद्धहस्त लेखक भी थे। उनकी गुजराती पत्नी लीलावती भी विद्वान और गीत-संगीत की प्रेमी थीं। राजकोट में ही 17 अक्तूबर, 1923 (विजयादशमी) को गौरा का जन्म हुआ। अश्विनी कुमार जी आगे चलकर माणबदर और रामपुर रियासतों के दीवान भी रहे।

गौरा के दादा श्री हरिराम पाण्डे संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वे काशी हिन्दू वि.वि. में धर्मोपेदशक थे। मालवीय जी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। गौरा का बचपन अपनी बड़ी बहन के साथ दादा जी की छत्रछाया में अल्मोड़ा की सुरम्य पहाडि़यों और बनारस में गंगा की धारा के साथ खेलते हुए बीता।

गौरा में लेखन की प्रतिभा बचपन से ही थी। 12 वर्ष की अवस्था में उनकी पहली रचना अल्मोड़ा से छपने वाली बाल पत्रिका ‘नटखट’ में छपी। मालवीय जी के परामर्श पर गौरा, उसकी दीदी जयन्ती और भाई त्रिभुवन को पढ़ने के लिए ‘शांति निकेतन’ भेज दिया गया। वहांँ उन्होंने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके साथ ही गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सान्निध्य में उनकी लेखन कला को सुघढ़ता एवं नये आयाम मिले।

कई स्थानों पर रहने से उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू तथा बाँगला का अच्छा ज्ञान हो गया। शांति निकेतन में उन्होंने अपने विद्यालय की पत्रिका के लिए बाँगला में कई रचनाएं लिखीं। वहांँ रहने से उनके मन पर बाँगला साहित्य और संस्कृति का काफी प्रभाव पड़ा, जो उनके लेखन में सर्वत्र दिखाई देता है।

एक बार रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा कि सहज लेखन के लिए व्यक्ति को अपनी मातृभाषा में ही लिखना चाहिए। इस पर गौरा ने ‘शिवानी’ उपनाम रखकर स्थायी रूप से हिन्दी को ही अपने लेखन का माध्यम बना लिया। उनके लेखन में जहांँ एक ओर नारी जीवन को प्रधानता दी गयी है, वहीं अल्मोड़ा के सुन्दर पहाड़, स्थानीय परम्पराएं और कठिनाइयांँ भी बार-बार प्रकट होती हैं।

विवाह के बाद उनका अधिकांश समय उत्तर प्रदेश की शासकीय सेवा में कार्यरत अपने शिक्षाविद् पति के साथ विभिन्न स्थानों पर बीता। पति के असमय निधन के बाद वे लखनऊ में ही रह कर, बच्चों की देखरेख के साथ ही लेखन की ओर अधिक ध्यान देने लगीं।

शिवानी ने मुख्यतः उपन्यास, कहानी और संस्मरणों के रूप में साहित्य सृजन किया। साठ और सत्तर के दशक में मुंबई से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ का बहुत बड़ा नाम था। इसमें उनके कई उपन्यास धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए। इससे शिवानी का नाम घर-घर में पहचाना जाने लगा।

'कृष्णकली’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। इसके अतिरिक्त 12 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, चार संस्मरण, अनेक व्यक्ति चित्र तथा बाल उपन्यास भी उन्होंने लिखे। लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत में वे ‘वातायन’ नामक स्तम्भ लिखती थीं। ‘सुनहु तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ शीर्षक से अपना आत्मवृत्त लिखकर उन्होंने लेखन को विराम दे दिया।

कहानी को साहित्य की मुख्यधारा में पुनर्स्थापित करने वाली, पद्मश्री से अलंकृत गौरा पंत ‘शिवानी’ का 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में देहान्त हुआ।

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